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सब दिया है उसने
कुदरत से जिंदगी तक
दानिश की शर्मिंदगी तक
सवाल बस इतना था की,
थोड़ी सी मासूमियत भी दे देता
सब कुछ तो दे दिया,
बस थोड़ी सी इंसानियत भी दे देता...
बहरहाल
शैतान ने बड़े प्यार से चुनी थीं
क्या वो आवाजें तुमने भी सुनी थीं?
उन आवाजों में, एक दर्द का एहसास था,
उन आवाजों में, कुछ खास था।
हालांकि,
वो खासियत सिर्फ हम जैसों के लिए है...
क्योंकि इन बड़े बड़े शहरों में,
जहां हाथों से रगों तक सिर्फ ज़ाम होता है,
ऐसी आवाजों का आना,
आम होता है।
अगर तुमने थोड़ा सा ध्यान दिया होता,
तो तुम्हे मालूम होता
की...
वो आवाजें दो तरह की थीं।
दो तरह के लोगों की थीं।
पहली आवाजों में
हंसी थी, खिलखिलाहट थी।
तो दूसरी ओर
दर्द था, चिल्लाहट थी।
जो लोग खुश थे, बेदर्द थे,
और जो बचे थे, खौफ से ज़र्द थे।
वो लोग जो चिल्ला रहे थे,
जिनमे हौंसला कम था
जिनके दिल में गम था:
ये लोग कौन थे?
उनकी वो चीखती चिल्लाती आवाजें
किसे पुकार रही थीं?
किसे ढूंढ रही थीं?
उन आवाजों के सन्नाटे में
कुछ माएं थीं
जो दम घोंट देने वाले बारूद के धुंए में
अपनी औलादें तलाश रही थीं।
कुछ बाप थे
जिनके जीवन अब अभिशाप थे।
जिनके बच्चे,
मंज़िल पाने गए तो थे
मगर लौट ना सके...
उन आवाजों में कुछ माशूक थे
जिनके इश्क,
एक अनचाही जंग में फना हो गए।
ये उस बेपनाह दर्द की आवाज़ें थीं
किसी के छूटने का दर्द...
दिल के टूटने का दर्द...
खुदा के रूठने का दर्द...
ये आवाजें उन लोगों की थीं
जिनका उन वजूहात से कोई वास्ता न था
जिन वजूहात की वजह से
उन्हें आवाज़ बनने पर मजबूर होना पड़ा
इन मासूम मजलूमों की खता थी
की इन्हे कुछ बातें नही पता थीं...
इन्हे नहीं पता था कि,
ईश्वर एक शुतुरमुर्ग है,
वो अपना सर शर्म से छुपा तो सकता है
मगर किसी को बचा नही सकता
इन्हे नहीं पता था कि,
इंसाफ एक फिल्मी फलसफा है
इन्हे नहीं पता था कि,
संत की शक्ल में रावण
आज भी किसी सीता की ताक में है,
इन्हे नहीं पता था कि,
हुकूमत-ए-जम्हूरिया
चाहे कितनी ही साफ हो
आखिर,
है तो हुकूमत ही
उसका जो निगहबान है
आखिरकार शैतान है।
इन आवाजों का
इस बात से कोइ वास्ता नहीं
की जिस बंदे ने उनके अपनों की जान ली
वो खुदा का था,
या राम का।
जो यह पता चला भी
तो न काफी था, ना काम का।
वक्त का कमाल है,
इसने परिवर्तन क्या किया थोड़ा,
राम और रावण में कोई अंतर ही नहीं छोड़ा।
जो कहना है तुम्हें
ब्रह्म, अहुरमाज़, अल्लाह
God ya जेहोवाः
वो
निराकार हैं
निर्विकार हैं
निर्निमेष हैं
निर्विशेष हैं
अव्यय हैं
अस्पर्श हैं
शब्दहीन हैं
रूपहीन हैं
संक्षेप में
नहीं हैं
या शायद हैं,
यकीनन इनके लिए तो नहीं हैं
ये वैचारिक संघर्ष के निष्कर्ष में
उत्पन्न कुंठाओं का किस्सा है
ये हर उस इंसान पर लाज़िम है
जो इन दुविधाओं का हिस्सा है।
किसी की जिंदगी में दर्द है
और किसी को उसका एहसास भी नहीं
बस यहीं आकर,
रूप्य स्वनि का
दर्द ध्वनि का
अस्तित्व स्वीकारते हैं।
हम नाहक खुदा को धिक्कारते हैं।
आज इंसान के इंसान होने पर रोक है
मज़हब अफीम नहीं, नोवीचोक है
हैवानों को जीतते देख परेशां होना,
या अल्लाह!
मुझे नागवार है खुद का इंसाँ होना...
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