तू पाकीज़ा है, तेरी हर आदत की तर
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आज एक दफा तफ़्सील-ए-हयात करने बैठे,
जो कुछ हासिल किया और उसे याद करने बैठे;
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दिल में रह-रह कर धुआँ सा उठता है,
कभी तेरे होने का सबूत मिलता है;
साँस खींचू अगर तो हवा करती है,
उठते धुएँ में फिर धुआँ करती है;
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एक अर्से समेटी शोहरत अज्दाद ने,
हम रोज़-ब-रोज़ उसे बदनाम किए हुए हैं;
रोज़ी-रोटी दाना-पानी सब छोड़ छाड़ कर,
तेरी हसरत में जिंदगी हराम किए हुए हैं,
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एक इश्क़ मुकम्मल होता है, दीदार-ए-सनम से यहाँ,
हर रोज़ बिना इज़हार हुए,
एक दिल क़त्ल होता है, मिज़ाज-ए-सनम से यहाँ,
हर रोज़ बिना इंकार हुए;
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मेरे अंदर झाँक के देख तुझे क्या दिखता है,
तेरा अक्स दिखता है, या मेरा इख़्तिताम दिखता है;
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बस फिर उसने पलकें झुका लीं,
और दोबारा हमें जीना याद आ गया;
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कभी चाँद, कभी तारे, कभी आसमाँ की ख्वाहिश होती है,
तेरे इश्क ने दूर- दराज़ों की, चाहत रखना सिखा दीया;
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हसरत-ए-सनम बसरत-ए-तन्हाई
तरस किसकी किस्मत पर हो, हम अक्सर ये सोचा करते हैं;
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तेरे दिल में नहीं तो न सही,
मेरा दिल काफी है हम दोनों के लिए;
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तुझे देख में साँसें लेना भी भूल गया,
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