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चिड़िया का वो छोटा सा बच्चा, शायद अभी-अभी दुनिया में आया, आँखें खुली तो सामने अपनी माँ को पाया। माँ उसे निहारती, प्यार से पुचकारती, उसे ठण्ड से बचाती, अपनी बाहों में छिपाती, भूख लगे तो खाना लाती फिर अपनी चोंच से खिलाती। उसे लगता बस यही जीना है, माँ ही मेरा सफ़ीना है। एक दिन उसका ये भ्रम टूटा, बहेलिये ने एक रोज़ उसकी माँ को लूटा, हाय! किस्मत का ये कैसा लेखा था, पत्तों में छिपाते माँ ने आखिरी बार उसे देखा था। उसके सामने सारा जीवन पहाड़ सरीखा था, अरे! उसने अभी उड़ना भी कहाँ सीखा था । मानो उस दिन उसकी दुनिया उजड़ गयी। ठण्ड से ठिठुरता, भूख से बिलखता, माँ की गर्माहट समझ पत्तों को बिछौना बना लिया । वो रात बहुत लम्बी थी...माँ जो नहीं थी। फिर एक नयी सुबह, एक नया सफ़र, अब उसके हिस्से बची थी बस अनजान डगर, उठकर अपने घोंसले से बाहर देखता, ऊँचाई से डरता, हवा के थपेड़ों से सहम सा गया, घण्टों बैठा सोचता रहा, माँ हमेशा कहती थी- "तू उड़ चल मेरे संग-संग, डरने की क्या बात है, जहाँ तू लड़खड़ाये मैं थामूँगी, याद रखना माँ हमेशा साथ है।" ये सोचा ही था उसने, और एक अक्स हवा में पाया, माँ आ गयी इतना कहा ही था कि पंख खुले उड़ गया हवा में, ज्यों ही हाथ बढ़ाया। क्या नदियां, क्या खेत, माँ ने सब कुछ उसे दिखलाया। साँझ हुई और अक्स मिटा, जाना उसने था वो महज़ माँ का साया, रात के उस अंधेरे ने फिर एक बार उसे सताया, पर अब उड़ना सीख चुका था वो... अब जीना सीख चुका था...
- पारुल धीरही
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