
कभी कभी मुझे लगता है
मेरी सारी कवितायें बेमानी हैं
कभी मैं शब्दों का सहारा लिए
भागता रहता हूँ
उन सारे जज़्बातों, हालातों से,लोगों और नातों से,
कि जिनके साथ चलने की
ताक़त नहीं होती मुझमें मैं कविता को ताबूत बना क्र
गाड़ देता हूँ उन्हें
या कभी जब
मन की बातें,
सीधी, साधारण और सादी लगती हैं
उन सीधी-सादी बातों के धागे को
शब्दों की सींख से बुनकर
स्वेटर बना देता हूँ उन्हें
कि अकेलेपन की सर्द रातों में
अपनी ही नीरस बातों से ऊँब न जाऊं मैं
ऐसी ही एक रात को
एक कविता आके बैठी मेरे पास
पूछने लगी मुझसे
क्यों को तुम इतने उदास?
सर्द रात में देने को
कुछ भी मेरे पास नहीं था
शब्दों एक स्वेटर था
लेकिन लिहाफ़नहीं था
मैनें कहीं से शब्द ढूंढ कर
एक शाल ओढ़ने को दिया छुपा कर उसमें सवाल अपना
जवाब छोड़ने को दिया कि मुझसे तुम कविता बनती हो
या मैं तुमसे कवी बन जाता हूँ?
पढ़े लिखे खरीदों में जोतुमको बेच के आता हूँ
वो देख के मेरी तरफ़धीरे से फिर मुस्कुराई
और पूछने लगी ये बात भला
कहाँ से चल के चली आयी
मैं जितनी तुम्हारी हूँ
उतने ही तुम हो मेरे
मैं जो लगती तुम्हारी हूँ
वही तुम लगते हो मेरे
हम जब बाज़ार को जाते हैंसाथ में नीलाम होते हैं
इसलिए तो कविताओं के
अंत में कवी के नाम होते हैं
- परीक्षित
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