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यूं हुईं वस्ल की उम्मीद फिर आज कम धीरे धीरे,
जैसे गुलाब की पंखुड़ियां मुरझा के बिखरती है धीरे धीरे।
हुआ था अपना सिलसिला शुरू एक गुलाब से,
फिर सुलग रहा है आज एक गुलाब धीरे धीरे।
कांटों से बचा के दामन लाया था तेरे लिए,
ना-उम्मीद सिमट गया मेरे हाथों में वही गुलाब धीरे धीरे।
चांद जो निकला तो लगा चांदनी के संग आओगे तुम,
दिल ने आज पहना ये भी नकाब धीर धीरे।
यूहीं कांच में फिसलती रही रेत,
हम सोचते रहे आयेंगे जनाब धीरे धीरे।
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