
सामने की गुफ़्तगू का सिलसिला रक्खे कोई
ख़्वाब में कब तक किसी से राब्ता रक्खे कोई
अपनी-अपनी चाहतों का दायरा रक्खे कोई
चाहने वालों से कितना फ़ासला रक्खे कोई
वस्ल की शामें नहीं और उम्र से लंबी फ़िराक़
टूटना लाज़िम है कब तक हौसला रक्खे कोई
जो भी शिकवे हैं सभी मिट जाएं अच्छा है यही
क्यों किसी से उम्र भर को गिला रक्खे कोई
हम बना लेते हैं अपना घर शज़र को काटकर
अपनी छत पर ही सही पर घोंसला रक्खे कोई
सर्द रातों में कहीं हो सर छुपाने की जगह
या मुसाफ़िर साथ अपने शब-कदा रक्खे कोई
हम अकेलेपन से हैं बेहद परेशां इसलिए
आने-जाने का मुसलसल सिलसिला रक्खे कोई
खूब मेहनत करते हैं बस ये दिखाने के लिए
एहतियातन हाथ में क्या आबला रक्खे कोई
एक दिन दुनिया की नज़रों में तो आ ही जाएंगे
कब तलक दुनिया से ख़ुद को लापता रक्खे कोई
दिल की मंजिल दिल तलक है और मुसाफ़िर हैं कई
दिल से दिल तक जाने का भी रास्ता रक्खे कोई
अंदाज़ हो बिल्कुल नया लेकिन सुख़न के लहजे में
मीर, गालिब, अदम, अनवर, एलिया रक्खे कोई
“मिश्र" तो तन्हाई में भी गुमशुदा हो जाते हैं
भीड़ में कैसे यहां अपना पता रक्खे कोई
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