
गीता सार | नितिन कुमार हरित | १ |
जीवन के सुरभित पुष्पों पर, बन के यम मंडराऊं कैसे?
जीवन यदि मैं दे ना सकूं तो, मृत्यु का पान कराऊं कैसे?
मेरे हैं रिश्ते नाते सब से, इन पर बाण चलाऊं कैसे?
हे केशव इतना समझा दो, इस मन को समझाऊं कैसे?
शून्य ही केवल सत्य जगत में, जीवन चिन्ह है खालीपन का,
शून्य से उपजा शून्य को जाए मृत्यु समय सुन पूर्ण हवन का,
माटी माटी से मिल जाए, भ्रम ना टूटे चंचल मन का,
मैं ना मरूंगा, तू ना मरेगा, जीना मरना खेल है तन का।
ये जीवन एक युद्ध है अर्जुन, पल पल लड़ना काम हमारा,
उसका जगत में मोल ना कोई, जो जीवन के रण में हारा,
आज जो छोड़ोगे रण भूमि, तुम पे हंसेगा कल जग सारा,
जिसने जगत में सब कुछ जीता, उसको मिला ना खुद से किनारा।
दुर्योधन कब संमुख तेरे, सतजन का संताप खड़ा है,
दंभ खड़ा है, द्वेष खड़ा है, मैं मैं का आलाप खड़ा है,
जिसने ना माने रिश्ते नाते, नातों पर अभिशाप खड़ा है,
तेरे संग है धर्म खड़ा और तेरे संमुख पाप खड़ा है।
मन की दुर्बलता को त्यागो, मोह को छोड़ो, दृढ़ हो जाओ,
धर्म अधर्म के युद्ध में अर्जुन, धर्म ध्वजा का मान बढ़ाओ,
मैं ही मरूंगा, मैं ही मारूं, तुम केवल साधन बन जाओ,
धर्म के रक्षक, कर्म के संगत, निश्चय करके बाण चलाओ।
~ नितिन कुमार हरित
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