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कहीं अंतर्मन में,
कल्पनाओं के बीज बो दिये थे.
सींचा भी था उन्हें,
हर रोज़,
विश्वास के जल से.
मैं देख रहा था,
धीरे धीरे मजबूत हो गयीं थी,
जड़ें,
आशाओं की.
निकलने लगी थीं कई टहनियां,
सपनों से गुथी हुईं.
और फिर
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