
Share0 Bookmarks 128 Reads1 Likes
कांधों पे लटकते वो अधखुले से बाल,
आधे सूखे, आधे गीले,
कभी कभी सूरज के आगे चमकते हुए,
लरजते हुए, महकते हुए,
चुप भी कहां रहते थे,?
चुपचाप छेड़ते थे शरगोशी सी कोई,
मैंने तो कई बार सुनी है,
उनकी आवाज़,
उनकी आहटे...
जैसे हर बार मुझे ही पुकारा हो !
- नितिन कुमार हरित
No posts
No posts
No posts
No posts
Comments