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ठोकरें जो खा रहा हूँ,
पत्थरों सा हो चला हूँ,
वक़्त की कारीगरी को,
बस समेटे जा रहा हूँ।

डर है तो अब एक ऐसा,
कहीं हो न जाउँ उस पाषाण सा,
जिसके दर पर झुकते सर हैं,
पर वो नहीं सुनता किसी का।

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