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सर्द शहर की बातों में,
जब भी तन्हा मै होता हूँ ,
यादों के अलाव जलाता हूँ ,
खुद भी थोड़ा सा जलता हूँ ।
लफ्ज़ों के गर्म लिहाफ़ो में,
सोने की कोशिश करता हूँ ,
कुछ ऐसे बिछड़े ख्वाबों को ,
जीने की कोशिश करता हूँ ।
जब भी सर्द मै पड़ता हूँ ,
ख्यालों में उलझने लगता हूँ ।
शब्दों के रंगी स्वेटर को,
कुछ ऐसे बुनने लगता हूँ ।
कांपते ठीठुरते रुह को,
तस्वीरों में उलझा देता हूँ,
फैले बेतरतीब ख़लिश को,
एक नर्म सहारा देता हूँ ।
बदहवास दौड़ते शहर में,
जब खुद को खोने लगता हूँ ।
सुनसान पड़ी इन रातों में,
चांद को तकने लगता हूँ ।
बेमानी लगते वादों को ,
फिर से जीने लगता हूँ ।
वीरान पड़े इन राहों को,
कुछ कदम मै चलने लगता हूँ ।
सर्द शहर की बातों में,
मै जब भी तन्हा होता हूँ ।
प्रीत की लौ जलाता हूँ ,
खुद भी थोड़ा सा जलता हूँ।
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