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मुख्तसर छांव सी कहानी है,
कुछ लिखी है, कुछ मनमानी है।
हर इतवार गुनगुनी धूप पढ़ता हूं,
शोर है उसकी ख़बर आनेवाली है।
चुभती तो है, शायद नादानी है,
मगर ढूंढना भी है, आख़िर मैंने ठानी है।
लेटा हूँ घास पर वो आये बैठे साथ,
ये शाम तो ज़िद्दी है, आ जानी है।
फ़िर हफ़्ते भर वक्त की ख़ामोशी है,
अगले इतवार कहानी थोड़ी छोटी हो जानी है।
कभी इंतज़ार से भी छुट्टी मिल जाए,
पता लग जाए अर्जियां कहां लगानी है ।
धूप ने नाराज़गी जतानी है,
रूठ गयीं यादें , इनकी भी मनमानी है।
तुम खिड़की से छांको,धूप खिल जानी है,
चंद पलों की बात है, कहानी पूरी हो जानी है ।
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