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जब भी गंगा किनारे बैठता हूँ ,
अनायास ही सोचने लगता हूँ,
कि तुमने कभी इस घाट पे ,
एक शाम गुजारी होगी।
डूबते सूरज ने देखा होगा तुम्हे,
ठहरा होगा उस शाम थोड़ा और,
फटी रह गयीं होगी उसकी आंखें,
चमकने लगा होगा थोड़ा और।
एक दीप में रखा होगा,
तुमने कुछ फूल , कुछ धूप ,
मांगी होगी कोई मन्नत तुमने,
तैरा दिया होगा जलता दीप।
तुमसे मिलने धारायें आईं होगी ,
पैरों से पत्थरों पे आड़ी टेड़ी,
लकीरें खींच दी होंगी तुमने,
जो बन गई उनके बहने की दिशा।
उन धाराओं ने ,
बसाए होंगे बंजारे लोग ,
सींचा होगा मानवता को ,
फैलाया होगा प्रेम की परंपरा को।
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