
जब भी गंगा किनारे बैठता हूँ ,
अनायास ही सोचने लगता हूँ,
कि तुमने कभी इस घाट पे ,
एक शाम गुजारी होगी।
डूबते सूरज ने देखा होगा तुम्हे,
ठहरा होगा उस शाम थोड़ा और,
फटी रह गयीं होगी उसकी आंखें,
चमकने लगा होगा थोड़ा और।
एक दीप में रखा होगा,
तुमने कुछ फूल , कुछ धूप ,
मांगी होगी कोई मन्नत तुमने,
तैरा दिया होगा जलता दीप।
तुमसे मिलने धारायें आईं होगी ,
पैरों से पत्थरों पे आड़ी टेड़ी,
लकीरें खींच दी होंगी तुमने,
जो बन गई उनके बहने की दिशा।
उन धाराओं ने ,
बसाए होंगे बंजारे लोग ,
सींचा होगा मानवता को ,
फैलाया होगा प्रेम की परंपरा को।
एक रात अंधेरे आसमान में,
घूमते-घूमते आया होगा एक पत्थर,
मिल गई होगी थोड़ी रौशनी जिसे,
जो उस शाम से यहां बिखरी है ।
इन सब चमत्कारों को,
देखने आए होंगे सैलानी,
फैलने लगी होंगी ढेरों कहानी,
लगने लगे होंगे यहां मेले हर बरस ।
कुछ अशांत उलझे मन ,
आते होंगे खुद को सुनने,
अनकही गुत्थियों को,
इन घाटों पर सुलझाने।
सबके अंधेरे रौशन हुए होंगे,
मिले होंगे अपने अस्तित्व से सभी,
रौशन हुए किस्मतों के साथ,
निकल पड़े होंगे सभी यात्राओं पर।
देखा जब मैंने प्रतिबिंब अपना,
गंगा के श्वेत शाश्वत अमृत में,
मेरे माथे की लकीरें वैसी ही लगीं,
जैसे तुमने खींचा था इन पत्थरों पर।
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