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मैं शहर हूँ...

Nishant JainNishant Jain June 16, 2020
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मुस्कानों का बोझा ढोए,

धुन में अपनी खोए-खोए

ढूँढता कुछ पहर हूँ।

मैं शहर हूँ।


बेमुरव्वत भीड़ में,

परछाइयों की निगहबानी,

भागता-सा हाँफता-सा

शाम कब हूँ, कब सहर हूँ,

मैं शहर हूँ।


सपनों के बाजारों में क्या,

खूब सजीं कृत्रिम मुस्कानें,

आँखों में आँखें, बातों में बातें,

खट्टी-मीठी तानें,

नजदीकी में एक फासला,

मन-मन में ही घुला जहर हूँ।

मैं शहर हूँ।


मन के नाजुक से मौसम में,

भारी-भरकम बोझ उठाए,

कागज की क़श्त से शायद,

हुआ है अरसा साथ निभाए,

खुद के अहसासों पर तारी,

हूँ सुकूँ या फिर कहर हूँ।

मैं शहर हूँ।ी

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