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सुनहरा बचपन था मेरा हर जाती भेद से दूर।
वो छालों भरी हाथों को थाम खड़ी हुयी,
माँ बाप के बाद उनके साये में बड़ी हुयी।
तोतली बोली और लरखड़ाते क़दम थे मेरे,
धुंधली सी है तस्वीर पर याद सब मुझे।
फ़िक्र अपनों सी प्यार अपनों सा दिया,
दिहाड़ी वाले मजदूरों ने इस बेटी को पलकों पर बिठा लिया।
बिन मुनाफे स्नेह लूटा रहे थे हम पर,
लोग कहते थे,गाँव के हैं वो गरीब नीच जाती वाले ।
आज सवालों में अपने मैं खुद उलझ जाती हुँ,
ये जाती भेद का फेर समझ नहीं पाती हुँ।
पर ठहर कर मुझे ये समझना था,
गाँव टिका जिनके सहारे उनके लिए प्रश्नन करना था ।
ये हठ नहीं हताशा थी अपमान की,
बात मेरी नहीं उनकी है सम्मान की ।
फसलों को सिंच कर अन्न तेरे घर लाते दिहाड़ी
फिर वो क्यों खड़े बाहर तेरे केवाड़ी ।
बहँगी उठा कांधे पर घरों में पानी पहुंचाता,
पर उसके घर के बाहर का कुंवा अछूता कहलाता ।
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