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सुनहरा बचपन था मेरा हर जाती भेद से दूर।
वो छालों भरी हाथों को थाम खड़ी हुयी,
माँ बाप के बाद उनके साये में बड़ी हुयी।
तोतली बोली और लरखड़ाते क़दम थे मेरे,
धुंधली सी है तस्वीर पर याद सब मुझे।
फ़िक्र अपनों सी प्यार अपनों सा दिया,
दिहाड़ी वाले मजदूरों ने इस बेटी को पलकों पर बिठा लिया।
बिन मुनाफे स्नेह लूटा रहे थे हम पर,
लोग कहते थे,गाँव के हैं वो गरीब नीच जाती वाले ।
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