
मानस की जात सबैएकै पहचानबौ
धर्म-कब,क्यो और कैसे(भाग-1)
(नीरज शर्मा-9211017509)
धर्म आस्तिक मानव के जीवन का एक प्रमुख अंग है। मानव जीवन में धर्म की महत्ता का इस बात से भी पता चलता है कि संपूर्ण विश्व में बहुत से महापुरुषों ने अपनी धार्मिक आस्था एवंम धार्मिक मान्यताओं का पालन करते रहने के लिए प्राणों तक की आहुति देने से भी पीछे नहीं हटे।हर वर्ष विश्व में धार्मिक कर्मकांड और परंपराओं को निभाने में मानव अरबों रुपए खर्च करता है।धर्म हमारी संस्कृति और रहन-सहन के ढंग को निश्चित करने में भी अति विशेष भूमिका निभाता है। धर्म मिश्रित रूप है जीवनयापन शैली, सदाचार, कर्तव्य, परम्परा, चरित्रनिर्माण,पाप, पुण्य,रिती-रिवाज,शिक्षा, विज्ञान, व्यवस्था, दण्ड, कर्म, वास्तु, न्याय, आचरण, खान-पान ,आचार संहिता, नियम, सिद्धान्त आदि जैसे अनगिनत कृत्यों एवंम आस्था, सकरात्मकता,विश्वास, क्षमा,दया, क्रूरता,खुशी, क्रोध, प्रसन्नता, जिगयासा, शान्ति आदि जैसी असंख्य भावनाओं और उस परमेश्वर जिस ने सृष्टि रची है उस को स्मरण करने की पद्धति ही धर्म है। प्रत्येक धर्म में परमात्मा को स्मरण करने का तरीका अलग अलग हो सकता है परन्तु पुर्णता सभी धर्मों में आत्मा का परमात्मा से मिलन ही है। धर्म पर वाद-विवाद इक आम सी बात है। परन्तु धर्म हमारे जीवन में कब और कैसे आया यह शोध का विषय है। हमें यह समझना होगा कि जीवन का आधार धर्म नही है अपितु धर्म का आधार जीवन आवश्य है। जैसे भाव का आधार भावना पर भावना का आधार भाव नही। धर्म के बिना पृथ्वी पर जीवन तो हो सकता है परन्तु जीवन के बिना धर्म का कोई अस्तित्व नही। कभी-कभी ऐसे महानुभावों से भेंट एवं धर्म पर चर्चा हो जाती है जिनके मत अनुसार मानवता ही उनका धर्म है।निश्चित रूप से मै भी यह मानता हुं कि प्रत्येक मानव मे मानवता के भाव होने ही चाहिए परन्तु उन भावो को हम धर्म की संज्ञा नही दे सकते।धर्म तो वो है जिस के अनुसरण में लिऐ गऐ निर्णय से बहुजन मानस का कल्याण हो। इस लघु कथा मे दिऐ तथ्यों पर आप विचार करें और समझे कि मानवता एक भाव तो हो सकता है किन्तु धर्म नही।
लघु कथा- 'एक राज्य में खूंखार लुटेरे अकसर उत्पात मचाते थे। लूट-पाट के साथ साथ सामान्य जनो की हत्या करने में उन्हें अति आनन्द की अनुभूति होती थी।उस राज्य के राजा की बहुत कोशिशों के वावजूद भी वह गिरफ्त में नही आते थे पर एक रात लुटेरो का प्रमुख राजा के सैनिकों के हत्थे चढ गया।राजा ने उसे सहस्त्र कोड़े मारने के बाद नगर के बाहर उसको मरने तक पेड से बांधने की सजा दी और राजा ने उस पेड़ पर राज आज्ञा पत्र भी चिपकाने को कहा जिस पर लुटेरे के अपराध एवं राजा द्वारा लिया गया निर्णय लिखा हो ताकि कोई व्यक्ति भी उसकी सहायता ना करे।राज आज्ञा का अनुसरण करते हुए सैनिकों ने कोड़े मारने के बाद लुटेरे को पेड से बांध दिया एवम् राज आज्ञा पत्र को पेड पर चिपका दिया और चले गए।कुछ समय बाद वहां पास ही के मार्ग से एक सेठ निकल रहा था जोकि मानवता को ही धर्म मानता था। उसने बेसुध बंधे लुटेरे को देखा एवंम राज आज्ञा को पढा परन्तु उसने राज आज्ञा को किनारे कर मानवता वादी भावनाओं से वशीभूत होकर लुटेरे को बन्धन मुक्त किया,उसको पानी पिलाया और उसके घावों पर औषधीय लेप लगाया।तब तक लुटेरे को भी सुध आ गई थी।उसकी नजर सेठ के पहने मोती-माणिक जडे कंठ हार एवं अंगुलियों मे पहनी स्वर्ण मुद्रिकाएं पर पडी। उसने मन ही मन भगवान को धन्यवाद दिया कि उसे सुध आते ही इतना अच्छा मौका दिया।उसने बिना समय व्यर्थ गंवाऐ सेठ को धर दबोचा और निकट ही पडे पत्थर से सेठ पर कई प्रहार कर के सेठ को मरा समझ,सेठ का सारा माल लूट के नगर की तरफ चला गया। उसने नगर में पहुंच कर फिर से बहुत सी हत्याऐ और लूट-पाट की।
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