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"शबनम"....सफ़र जिंदगी का
आज ओस की बूंदों ने फिर.. मन को प्रफुल्लित...कर दिया..
पत्तों से उतर...न जाने कब..ख़ुद को जमीं के समर्पित कर दिया...
पास खड़ी... देखती रह गयी.. उस अदभुत से दृश्य को,
कुछ ही पलों में बस...अपनी हस्ती को गुम.. कर दिया.
चंद मिनटों के जीवन में...खुशियाँ बिखेरी इस तरह
कहीं फूलों को...कहीं पत्तों को मखमल...कर दिया.
अपने सौंदर्य पे... ग़ुमा करें, इसका समय कहाँ उनको,
पल में माटी पे गिर... धरा को चुंबित करना है जिनको.
कोई पूछे उनसे... उनके अस्तित्व की गरिमा क्या है?
सूने पत्तों पे.. खुदबखुद गिरने की जरूरत क्या है...??
छोड़ संकोच इक दिन पूछ लिया.. मैंने आकर उनसे....
क्यों मिटा देती हो अपनी हस्ती को... बस यूँही गिर के...
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