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-दो वर्ष कोविड के-
"क्या खोया क्या पाया हमने "
इन दो वर्षों की अवधि में... क्या खोयाऔर क्या पाया है
व्योरा इसका कोई कैसे दें..क्या पाया..कब क्या गवाया है.
पाने को अपनत्व था केवल..और माधुर्य की थी आशा..
छिन्न-भिन्न होते जीवन में...बस, अपनों की अभिलाषा.
कौन सगा है.. कौन पराया..ये पहचान हुईं सब को..
कर्मों से ऊपर मानवता.. इसका एहसास हुआ जग को.
अनमोल रत्न मानव-जीवन..कुछ अर्थहीन सा लगता था
मानवता पर मृत्युंजय का... तांडव सा नृत्य उभरता था.
तज देह अकेले चले गये...जो सदा भीड़ में रहते थे
रोता था सब का अंतर्मन...पाषण द्रवित हो जाते थे.
कहीं किसी के प्रिय गये... कहीं गए धन के साधन...
कहीं पे..छूटे रिश्ते और नाते, कहीं किसी के टूटे.. मन.
इस व्याधि की अवधि ने.. हम सब को त्राहिमान किया,
जिसने मानवधर्म निभाया...उनको अति-सम्मान दिया.
इन दो वर्षो ने समय दे दिया..सभी को आत्ममंथन का.
क्या खोया क्या पाया हमनें.. इस विचार पे चिंतन का...
कहाँ सही और कहाँ गलत? इसका आभास हुआ सब को
अपनी त्रुटियों,सद-कर्मों का..हर पल एहसास हुआ सब को.
"क्या खोया क्या पाया हमने "
इन दो वर्षों की अवधि में... क्या खोयाऔर क्या पाया है
व्योरा इसका कोई कैसे दें..क्या पाया..कब क्या गवाया है.
पाने को अपनत्व था केवल..और माधुर्य की थी आशा..
छिन्न-भिन्न होते जीवन में...बस, अपनों की अभिलाषा.
कौन सगा है.. कौन पराया..ये पहचान हुईं सब को..
कर्मों से ऊपर मानवता.. इसका एहसास हुआ जग को.
अनमोल रत्न मानव-जीवन..कुछ अर्थहीन सा लगता था
मानवता पर मृत्युंजय का... तांडव सा नृत्य उभरता था.
तज देह अकेले चले गये...जो सदा भीड़ में रहते थे
रोता था सब का अंतर्मन...पाषण द्रवित हो जाते थे.
कहीं किसी के प्रिय गये... कहीं गए धन के साधन...
कहीं पे..छूटे रिश्ते और नाते, कहीं किसी के टूटे.. मन.
इस व्याधि की अवधि ने.. हम सब को त्राहिमान किया,
जिसने मानवधर्म निभाया...उनको अति-सम्मान दिया.
इन दो वर्षो ने समय दे दिया..सभी को आत्ममंथन का.
क्या खोया क्या पाया हमनें.. इस विचार पे चिंतन का...
कहाँ सही और कहाँ गलत? इसका आभास हुआ सब को
अपनी त्रुटियों,सद-कर्मों का..हर पल एहसास हुआ सब को.
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