ग़ज़ल // Ghazal's image
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ज़ख़्मों पे ज़ख़्म खाए ज़माने गुज़र गए

पत्थर भी घर मे आए ज़माने गुज़र गए


वो दोस्ती का हो या कोई दुश्मनी का हो

रिश्ता कोई निभाए ज़माने गुज़र गए


कैसी है कमनसीबी के ठोकर भी दोस्तों

उसकी गली में खाए ज़माने गुज़र गए


कुछ तो कोई बताए के चौखट पे देर शब

उसको दिया जलाए ज़माने गुज़र गए


आईना है दिवार पे चस्पाँ उसी तरह

अक्सों को मुँह चिढाए ज़माने गुज़र गए


मेरी निगाह अब भी उसी सिम्त है मगर

खिड़की पे उसको आए ज़माने गुज़र गए


है नाम मेरा अब भी रईसों में ही शुमार

पा- फ़ाख्ता उड़ाए ज़माने गुज़र गए 


- नवनीत ' कृष्ण '

बिहार , नालंदा

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