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दोस्त मेरे......



ज़िन्दगी जीने का जुदा जज़्बा जगाया दोस्त मेरे......

तूने हंसकर मुझको यूं गले से लगाया दोस्त मेरे......


जीवन में था न जाने कबसे पतझड़ का मौसम.......

यारी ने इसे महकता गुलशन बनाया दोस्त मेरे.......


रूठीं आशाओं से सूना पड़ा था मन का आंगन.......

भरके रंग नये उम्मीदों के इसे सजाया दोस्त मेरे.......


खोया हुआ सा था उजाला कहीं अंधेरी राहों में......

दोस्ती ने तेरी, विश्वास का दीप जलाया दोस्त मेरे......


मायूस होकर मुरझा रहीं थीं अरमानों की कलियां......

ख़ुशी में मेरी, अपनी खुशियों को खपाया दोस्त मेरे......


खाईं थीं ठोकरें दर-बदर भटकते हुए ज़माने की.......

मुझ पराये को अपना मानकर अपनाया दोस्त मेरे.......


मतलब के बिना कोई नहीं पूछता हाल किसी का.......

तेरे एहसानों ने दोस्ती की हदों को हराया दोस्त मेरे.......



- नरेश कुशवाहा


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