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और वो नृत्यरत हुई
दक्षिण के जंगलों को
अपने केशों में समेटे
अपनी श्यामल महक
बिखेरती हुई
वसुधा के आँचल पर
अपने नेत्रों के जुगनुओं को
टाँकती हुई
सेमल की पँखुड़ियों में
गोधूलि के प्रथम स्पर्श में
सुरमई सी
विलीन होती रही वो
हवा समेटती रही
फूलों के रङ्ग
मिलन-कुंज की प्रतीक्षा में
एक नक्षत्र अपने गलियारे में
चाँदी के सिक्के उछालता हुआ
करता रहा आकाश में
स्वर्णिम कारीगरी
देखो!
आज रात्रि
सूर्य के प्रेम में
स्वतः सूर्य हो गयी।
~ नन्दिता सरकार
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