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कितनी प्यासी हूं मैं ,प्राण!
तुम क्यों चले नहीं आते ।
शांत करने को हृदय मेरा
क्यों नहीं रस सुधा बरसाते।
विदग्ध विरह बाला सी धरा मैं
और तुम निष्ठुर प्रवासी सजन से।
अब और न जलने दो काया मेरी
शीतल नीर बन उतरो गगन से ।।
मार्ग से अब न भटकना मेघ तुम
बाहें पसारे तुमको पुकारे ये धरा ।
आह! आ गए क्या तुम द्वार पर
ठहरो ! खुद को संवारूं मैं जरा ।
कर देना सराबोर मुझको पयोधर!
मेरा अंग अंग जलने लगा ताप से।
रचना होगी एक नई सृष्टि की पुनः
जगत में हम दोनों के मिलाप से ।
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