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बचपन में दौड़ना सीखा
जवानी में उड़ना आसमान में
बुढ़ापे में आ गए जमीं पर
फिर से आया तीर कमान में
दरिया सागर से मिलने को है
एक बड़ा पेड़ गिरने को है
हसरतें हुई सब धुंआ धुंआ
आखिरी सांस भी छिनने को है
समझ न पाए ख़ुद को भी
और जीवन की शाम हो गई
मरीचिका सा सुख पाने को
यूं ही उम्र तमाम हो गई
मंज़िल तलाशती रह गईं आंखें
सफ़र के सुहाने मंजर नहीं देखे
पड़ाव उम्र के करते रहे आगाह
पर हाथ में छुपे खंजर नहीं देखे
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