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शुष्क पड़े अधरों से
जान लिया वो प्यासा है
चहक रहा बेहद लेकिन
अंदर से बहुत रुवांसा है
सुख की खोज में बहुत
दूर निकल आया था वो
गैरों का होने की जल्दी में
ख़ुद से बहुत पराया था वो
चाहत में अमृत की उसने
निर्मल जल भी पिया नहीं
कंठ प्यास से व्याकुल हरदम
वो कभी चैन से जिया नहीं
यही मनुज की है प्रकृति
आधी छोड़ पूरी को भागे
जो उसके पीछे, छोड़ उसे
कहीं मरीचिका में मन लागे
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