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मैं कब तक चुप रहती ।
कब तक मैं तुम को सहती।।
विष ज्वाल लिए अंतर्मन में
शीतल सरिता बन कब तक बहती।
मां कहकर तुमने मुझसे
भोग्या सा व्यवहार किया।
इतने बंधन डाले मुझ पर
एक शूल हृदय के पार किया।
जननी को सीमाओं में बांधा
तटबंधों पर की पहरेदारी।
यत्र तत्र अवरोध खड़े कर
लहरों से मांगी हिस्सेदारी।
बह निकले अब वही अश्रु
पीड़ा का सैलाब उमड़कर।
मैं रोक नहीं पाई उसको
बदली जो बरसी घुमड़ घुमड़ कर।
व्यथित बहुत हूं मैं भी लेकिन
ये मेरा प्रतिशोध नहीं है।
असह्य वेदना बन गई आपदा
संतति से अपनी क्रोध नहीं है।
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