
मैं उस जगह से नही टूटता
जहाँ टूटने या काटने के कोर होते हैं
मैं उस जगह से टूटता हूँ
जहाँ मर्मस्थल सपाट, निचाट
और कठोर होता है
मैं तब नही झुकता
जब मेरे माथे के सामने
किसी पुराने वृक्ष की शाख आ जाए
मैं तब झुकता हूँ जब
किसी विरूपित नन्हे पौधे की
कुम्हलाई कातर दृष्टि
नमी की आस से मुझे देखती है
मैं उस जगह से नही फटता
जहाँ फटने के दुर्बल कोण बने हो
जैसे छीमियाँ- दानों के पकने के पश्चात
अपने किनारों से फट जाती हैं
लोक* लिए जाते हैं दाने
व निस्तारित कर दिए जाते हैं छिलके,
मैं ऐसे फटता हूँ जैसे
किसी डायरी के सादे पन्ने को
चट से कहीं से भी फाड़ कर
अनुपयोगी कर देते हैं बच्चे
जिन पर अनेको वार्तालाप
सट सकते थे।
मैं तब नही रोता जब अश्रु
मीना बाजार के किसी चित्ताकर्षक
ताखे में सजाने हों
मैं तब रोता हूँ
जब अश्रु नयनों की बजाय
स्वेद कूपों में तलाश लेते हैं रास्ता
और पराई पीर को पलकों में बिठा देते हैं।
हाँ! ये ठीक है कि मैं भी
टूटता, झुकता, फटता और रोता हूँ
किन्तु
क्षमताओं और अपेक्षाओं के साथ
स्थितप्रज्ञ रह जाने की अनिवार्यता
एक अन्य महती सन्यास है।
किन्तु इन सभी अवस्थाओं पर मैं
मास्क लगा रखता हूँ
क्योंकि इस जाबा^ के भीतर
अधरों की लाली ही नही
अन्य भंगिमाएँ भी लोप हो जाती हैं।
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* पकड़ना (Catch)
^मुख-आवरण (Mask)
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