
“महामारी के दौर मे गाँव जाते एक परिवार पर कविता “
गाँव से हम आये थे, मजदूरी करनें शहर |
रोजगार की चाह में, पकड़ी थी ये डगर ||
धीरे धीरे सब जम गया, जिंदगी हो गई आसान |
जरूरतें भी हो गई पूरी, घर भी भेजा कुछ सामान ||
फिर एक रोज मालिक नें, बातें की कुछ चंद |
500 का नोट थमाकर कहा, फैक्ट्री रहेगी कल से बंद ||
इन बातों ने कर दिया, मुझे पूरी तरह से स्तब्ध |
अपने परिवार के प्रत्येक प्रश्न पर, रहा केवल निःशब्द ||
मेरे हाथ मे साहब ने केवल, 500 का नोट थमाया था |
परंतु अभी तो घर का राशन और, किराया भी बकाया था ||
यातायात के सभी साधनों को, भी सरकार ने बंद कराया था |
अब गाँव जाने को केवल, किराये की साइकिल का सहारा था ||
लोगों ने मुझसे कहा की बाहर निकलोगे, तो कोरोना हो जाएगा |
कैसे समझाऊ की नहीं गया तो, बीमारी से पहले भूख से मर जाऊंगा ||
किराये की उस साइकिल पर बैठकर, पेडल पर पाँव चलाया |
आगे बड़ी बेटी तो पीछे छोटी, को पत्नी की गोद मे बैठाया ||
खर्च हुए रास्ते मे जेब के पूरे पैसे, अब बचत को भी नगण्य पाया हूँ |
आज अपनी उस भूखी बेटी से, मैं नजरें भी नहीं मिला पाया हूँ ||
मुझे नहीं पता अब कि इस सफर, में कब तक मेरा वजूद है |
परंतु ईश्वर से हमेशा पूछता हूँ, इसमे हमारा क्या कुसूर है ||
मुकुल त्रिपाठी
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