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“महामारी के दौर मे गाँव जाते एक परिवार पर कविता “

Mukul TripathiMukul Tripathi June 16, 2020
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“महामारी के दौर मे गाँव जाते एक परिवार पर कविता “


गाँव से हम आये थे, मजदूरी करनें शहर |

रोजगार की चाह में, पकड़ी थी ये डगर ||

धीरे धीरे सब जम गया, जिंदगी हो गई आसान |

जरूरतें भी हो गई पूरी, घर भी भेजा  कुछ सामान ||


फिर एक रोज मालिक नें, बातें की कुछ चंद |

500 का नोट थमाकर कहा, फैक्ट्री रहेगी कल से बंद ||


इन बातों ने कर दिया, मुझे पूरी तरह से स्तब्ध |

अपने परिवार के प्रत्येक प्रश्न पर, रहा केवल निःशब्द ||


मेरे हाथ मे साहब ने केवल, 500 का नोट थमाया था |

परंतु अभी तो घर का राशन और, किराया भी बकाया था ||


यातायात के सभी  साधनों को, भी सरकार ने बंद कराया था |

अब गाँव जाने को केवल, किराये की साइकिल का सहारा था ||


लोगों ने मुझसे कहा की बाहर निकलोगे, तो कोरोना हो जाएगा |

कैसे समझाऊ की नहीं गया तो, बीमारी से पहले भूख से मर जाऊंगा ||


किराये की उस साइकिल पर बैठकर, पेडल पर पाँव  चलाया |

आगे बड़ी बेटी तो पीछे छोटी, को पत्नी की गोद मे बैठाया ||


खर्च हुए रास्ते मे जेब के पूरे पैसे, अब बचत को भी नगण्य पाया हूँ |

आज अपनी उस भूखी बेटी से, मैं नजरें भी  नहीं मिला  पाया हूँ ||


मुझे नहीं पता अब कि  इस सफर, में कब तक मेरा वजूद है |

परंतु ईश्वर से हमेशा पूछता हूँ, इसमे हमारा क्या कुसूर है ||


                                    मुकुल त्रिपाठी 



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