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हे साधना कहां से आरंभ हो
ललाट के तेज को आत्मसात करूं
या फिर भूमि के स्पर्श को
ललित सौंदर्य के समक्ष साष्टांगत
भूमि के वंदन को सर्प की भांति
नवीन शाखा के समान आलिंगन
अतार्थ पूर्ण दासत्व हो
ये अर्चना का आत्मीय स्वरूप
और कला का बाह्य विस्तार है
ये पूर्णता की ओर एक मात्र
अतिआनंदित सुनम्य मार्ग
एंद्रिक वंदना का
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