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।। गुल दोपहरी ।।
शाम का समय था। अपने मोबाइल और लेपटाप पर काम करके थकी आँखों को तरोताजा करने के लिए बाहर बालकनी में घूमने लगी। छोटे-छोटे कप-डिब्बों में लगी गुल-दोपहरी जून महीने की कड़ी धूप से मुरझा सी गई थी। सोचा इसे भी तरोताजा कर ही देती हूँ।
जब पानी डाल रही थी तभी हमारे घर के सामने रहने वाली मीना भाभी अपने घर से बाहर निकलीं। माडर्न स्टाइल का कुर्ता-प्लाजो साथ में स्कार्फ पहने बहुत स्टाइलिश लग रही थीं। खुद ही कपड़े सिलती हैं। घर में ही बुटीक खोल लिया है। बढ़िया काम चल रहा है और भाभी की काया कल्प हो रही है।
हाथ हिलाकर दोनों तरफ से अभिवादन का आदान-प्रदान हुआ। वो इतनी स्मार्ट लग रही थीं कि अभिवादन के बाद मुड़ती नज़र, मुड़ते-मुड़ते उनकी तारीफ़ कर गई और भाभी ने नजरों ही नज़रों में तारीफ कबूल कर, अपनी आजाद मुस्कान से धन्यवाद भी कर दिया।
इधर मैं वापिस गुल दोपहरी को निहारने, टटोलने लगी थी कि तभी भाभी की बिटिया स्कूटी निकालते हुए बाहर दिखाई दी। बिटिया अब किसी कॉलेज में लेक्चरार बन गई थी।
मुझे याद आया कि यह वही बिटिया है जिसके जन्म पर उनके घर में कई दिनों तक मातम और माहौल में क्लेश छाया रहा था। ये क्लेश कुछ दिनों के लिए होता तो और बात थी मगर ये तो बच्ची के बड़े होने के साथ-साथ और बढ़ता गया। पिता का शराब पीना, पीकर भाभी को मारना, गली-मोहल्ले का बचाव करने की विफल कोशिशें। सचमुच कितना भयानक युग देखा था भाभी ने!
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