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मन में उत्कंठा हुई
कि कवि बनूँ मैं!
किंतु हृदय में तनिक भाव न था
कि कवि बनूँ मैं!
फिर भी अवचेतन मन में था
कि कवि बनूँ मैं!
करने मन की अभिलाषा पूर्ण मैं
चला काव्य के पथ पर मैं
किंतु शब्दों के फेर में फंस गया मैं
शब्द अलंकृत करने के चक्कर में
शब्द को ही भूल गया मैं
फिर भी मन में उमंग थी
कि कवि बनूँ मैं!
मैंने समझाया मन को
हृदय के आग्रह पर कि
ये अपने बस की बात नहीं
फिर मन कहता है कि क्या मैं मनुष्य नहीं
पुनः मन में ललक जगी
कि कवि बनूँ मैं!
किंतु मैं छंद, रस को जान न पाया
फिर भी हृदय ने काव्य को अपनाया
इस तरह कवि बन पाया मैं
फिर भी पूर्ण नहीं मैं.................
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