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साधु, संत और फकीर को
संसार कहता अनासक्त हैं
क्योंकि ये सांसारिकता के प्रति अनासक्त हैं
लेकिन फिर भी मेरी दृष्टि में वे अनासक्त नहीं
अनुरक्त हैं,आसक्त हैं
क्योंकि वे ईश्वर के भक्त हैं
उन्हीं के प्रति अनुरक्त हैं,आसक्त हैं
इसलिए इसे आसक्ति कहूँ या अनासक्ति.....
फिर मैं तो साधारण मनुज हूँ
गृहस्थी में , सांसारिकता में लिप्त हूँ मैं
अनुरक्त हूँ मैं,आसक्त हूँ मैं
किंतु जब हुआ मैं वानप्रस्थी, सन्यासी
तब हुआ सांसारिकता से अनासक्त मैं
परंतु तब भी मैं ईश्वर के प्रति अनुरक्त था,आसक्त था
इसलिए इसे आसक्ति कहूँ या अनासक्ति.....
हजारी प्रसाद द्विवेदी जी कहते हैं कि
कवि वही जो कबीर, कालीदास की तरह
अवधूत हैं, अनासक्त हैं
किंतु मेरी दृष्टि में कवि भी
अपने काव्य के प्रति अनुरक्त हैं,आसक्त हैं
इसलिए इसे आसक्ति कहूँ या अनासक्ति.....
संसार कहता अनासक्त हैं
क्योंकि ये सांसारिकता के प्रति अनासक्त हैं
लेकिन फिर भी मेरी दृष्टि में वे अनासक्त नहीं
अनुरक्त हैं,आसक्त हैं
क्योंकि वे ईश्वर के भक्त हैं
उन्हीं के प्रति अनुरक्त हैं,आसक्त हैं
इसलिए इसे आसक्ति कहूँ या अनासक्ति.....
फिर मैं तो साधारण मनुज हूँ
गृहस्थी में , सांसारिकता में लिप्त हूँ मैं
अनुरक्त हूँ मैं,आसक्त हूँ मैं
किंतु जब हुआ मैं वानप्रस्थी, सन्यासी
तब हुआ सांसारिकता से अनासक्त मैं
परंतु तब भी मैं ईश्वर के प्रति अनुरक्त था,आसक्त था
इसलिए इसे आसक्ति कहूँ या अनासक्ति.....
हजारी प्रसाद द्विवेदी जी कहते हैं कि
कवि वही जो कबीर, कालीदास की तरह
अवधूत हैं, अनासक्त हैं
किंतु मेरी दृष्टि में कवि भी
अपने काव्य के प्रति अनुरक्त हैं,आसक्त हैं
इसलिए इसे आसक्ति कहूँ या अनासक्ति.....
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