
मैं, मैं वो हुँ आज हर गली, मोहल्ले, नुकड़ पर निलाम हो जाती हूँ
मैं तुम्हारी देखी, अनदेखी गलतियों पर बीच बाज़ार बदनाम हो जाती हूँ
मैं वो हूँ जो एक मासूम की आँखों से आँसू बन तो बहती हूँ
पर मैं वो भी हूँ, जो बेकसूर को मरते देख चुप खड़ी रहती हूँ
मेरी किमत, मंदिर-मस्जिद-गुरुद्वारों के बहीखातों से मत लगाना, मैं सबकी जेब में नहीं आऊंगी
पर उन सिड़ियों पर नज़र टिकाए बैठी हथेली को कुछ खाने को ज़रुर देते जाता, वरना मैं भूखी मर जाऊँगी
क्या हुआ, सोच रहे हो, मैं कौन हूँ?
ज्यादा मत सोचो, मैं मिल गई तो!!
इतनी मुश्किल से तो भुलाया था
मैं, मैं ज़मीर हूँ तुम्हारा
हाँ लही जिसे अभी आते-आते मार कर आए हो
जब रिशवद दी या देने-लेने वाले को रोका नहीं
बदसलूकी करते देखा ज़रुर, मगर टोका नहीं
माफ करना, मैं भी कहाँ तुमसे बातें करने लग गई
इनसान के अंदर की इनसानियत तो हूँ मैं, पर मर चुकी हूँ
मैं हर उस पल ज़ार-ज़ार तो होती हूँ, जब उस बच्ची की चीखें सुनाई देती है
इनसान का तो बस परदा है, जब शकलों में हैवानियत दिखाई देती है
मैं इनसानियत हूँ, माफ करना मैं इनसानियत थी
मैं रहती थी, आप जैसे शरीरों में
इन सूट-बूट वाले फकीरों में
मैंने खुदखुशी करी थी
जानते हो कहाँ?
उस सेठ के गोदाम में जहाँ, भुखमरी के दिनों में अनाज भर कर रखा था
जहाँ गरीब की भूख को कैद कर रखा था
मैं मर चुकी हूँ, हर उस इनसान के भीतर से, जिसे अब जज़्बातों की कद्र नहीं
गुमान है पैसों पर, अपने ईमान पर फक्र नहीं
मुझे शौक नहीं था मरने का, मैं जीना चाहती थी
हमदर्द बन, साथ बैठ आँसू पीना चाहती थी
पर....
मैं मर चुकी हूँ
मेरी भी कुछ कीमत तो थी, पर अब म लाश बन जल चुकी हूँ
मैं मर चुकी हूँ...
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