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इन सूखे दरख्त की छांव में
अब कोई पंथी ना रुकता
इन तरुवर की डालो पर
पंछी भी कलरव ना करता
हर पथिक को शीतल छाया दी
जब थका हुआ सा वह लगता
जो दौड़ा-दौड़ा आता था
वह धूप और बारिश से बचता
हरियाली अपनी खोते ही
अपनों में गैरों सा दिखता
अब मैं पथिक निहार रहा
कोई इस पथ पर ना मुड़ता
उस दर्द को कोई क्या जाने
जो अपनों से दिल को है लगता
वह घाव हरा ही रहता है
जो अपनों के बाणो से विधता
इन सूखे दरख्त की छांव में
अब कोई पंथी ना रुकता
मनोज मिश्र
अब कोई पंथी ना रुकता
इन तरुवर की डालो पर
पंछी भी कलरव ना करता
हर पथिक को शीतल छाया दी
जब थका हुआ सा वह लगता
जो दौड़ा-दौड़ा आता था
वह धूप और बारिश से बचता
हरियाली अपनी खोते ही
अपनों में गैरों सा दिखता
अब मैं पथिक निहार रहा
कोई इस पथ पर ना मुड़ता
उस दर्द को कोई क्या जाने
जो अपनों से दिल को है लगता
वह घाव हरा ही रहता है
जो अपनों के बाणो से विधता
इन सूखे दरख्त की छांव में
अब कोई पंथी ना रुकता
मनोज मिश्र
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