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अनकही व्यथा है
कोई किरदार नहीं है
दर्द का सिलसिला है
कोई मददगार नहीं है
किसके मन का दर्द है
किसको सुनाना है
दर्द के मारों का
कोई तलबगार नहीं है
कागज की कश्तियां हैं
कोई सवार नहीं है
बेनाम लिफाफों का
कोई हकदार नहीं है ।
मं शर्मा (रज़ा)
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