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तन्हाई के कोलाहल का
सूनेपन के लम्हों का
मौन शब्दों की बातों का
बिना मिले मुलाकातों का
क्या कोई औचित्य नहीं है
जीवन इतना व्यर्थ नहीं है
साथ छोड़ते सायों का
संबंधों के कच्चे धागों का
पलकों से बीने काँटों का
बेआवाज बजते साजों का
क्या कोई अर्थ नहीं है
जीवन इतना व्यर्थ नहीं है।
मं शर्मा (रज़ा)
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