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बिन सुलगी लकड़ियों सी
धुआँ धुआँ होती रही
कभी चूल्हे की तेज ज्वाला सी
जिंदगी धधकती रही
कभी सुलग सुलग कर
कभी बिन सुलगे भी
हर दफा खाक होकर
अंजाम को पहुँचती रही ।
मं शर्मा( रज़ा)
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बिन सुलगी लकड़ियों सी
धुआँ धुआँ होती रही
कभी चूल्हे की तेज ज्वाला सी
जिंदगी धधकती रही
कभी सुलग सुलग कर
कभी बिन सुलगे भी
हर दफा खाक होकर
अंजाम को पहुँचती रही ।
मं शर्मा( रज़ा)
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