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आँखों में है दिव्य ज्योति
चेहरे पे मंद मंद मुस्कान है
लगता है सब जानबूझ कर
तू बनता रहता अंजान है
मैं मूरख फिर भी न मानूँ
नित आकर झोली फैलाऊँ
तू पिता तू ही पालनकर्त्ता
मैं भी तेरी ही तो संतान हूँ ।
मं शर्मा(रज़ा)
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