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खामोश थी तो खास थी
जुबां खुली तो आम हुई
शब्दों ने जो शमशीर गढ़ी
अनगिनत घाव कर गई
करनी का सारा हर्जाना
पश्चात्ताप भरता रहा
अपनों के दिए घावों पर
मरहम बन लगता रहा ।
मं शर्मा( रज़ा)
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खामोश थी तो खास थी
जुबां खुली तो आम हुई
शब्दों ने जो शमशीर गढ़ी
अनगिनत घाव कर गई
करनी का सारा हर्जाना
पश्चात्ताप भरता रहा
अपनों के दिए घावों पर
मरहम बन लगता रहा ।
मं शर्मा( रज़ा)
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