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मेरी तलाश की परिधि भी
बस तुम तक ही सीमित थी
प्रेम सूख रहा था प्रतिदिन
वेदना पल्लवित पुष्पित थी
सुर्ख थीं आहत भावनाएँ
मन में चेतना जीवित थी
बावरा मन फिर भी न माना
उसकी लगन अलौकिक थी।
मं शर्मा (रज़ा
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