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रोज़ बने और रोज़ मिटे

कुछ छोटे कुछ बड़े दिखे

लहरों जैसे कुछ बह गए

कुछ यादें अपनी छोड़ गए


ख्वाब थे बुलबुले सरीखे

नित गढ़े और नित टूटे

समंदर को गीली रेत पर

मानो कदमों के निशां छूटे ।


मं शर्मा (रज़ा)

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