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आँगन सिमट कर बालकनी हुए हैं
परिवार टूटकर फैमिली हुए हैं
संस्कारों की उड़ाके धज्जियाँ
आधुनिकता के पैरोकार हुए हैं
अपनी हस्ती का दंभ पाले हैं
बस मैं ही मैं हूँ फितूर पाले हैं
ओढ़कर दिखावट की पोशाकें
मौलिकता को डसते जा रहे हैं।
मं शंर्मा( रज़ा)
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