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धानी चुनरिया ओढ़ के
धरती ने सिंगार किया है
अग्निबाण न छोड़े आज
सूरज से मनुहार किया है
सांझ ढले जब पंछी लौटें
अपने अपनों से जब भेंटें
खुशियों की झोली समेटे
मन जावें सब सुबह के रूठे।
मं शर्मा (रज़ा)
।।।।
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