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खामोश मैं अब कैसे रहूँ

लफ्ज़ कुछ बोलने लगे हैं

आँसुओं को छिपा तो लूँ

ज़ख्म भी रिसने लगे हैं


मर्ज कोई समझता नहीं

दवा सब करने चले हैं

हुआ शिकायतों का दौर खत्म

हिमायती जाने लगे हैं।


मं शर्मा( रज़ा)

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