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मसान के धुएँ संग
उड़ी थी राख कुछ ऐसे
मानो कह रही हो देह
कुछ अनकहा सा जैसे
काश वक्त ने थोड़ी सी
मोहलत और दी होती
मुमकिन है तपती रेत पर
दो बूँदें तो गिरी होती ।
मं शर्मा (रज़ा)
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मसान के धुएँ संग
उड़ी थी राख कुछ ऐसे
मानो कह रही हो देह
कुछ अनकहा सा जैसे
काश वक्त ने थोड़ी सी
मोहलत और दी होती
मुमकिन है तपती रेत पर
दो बूँदें तो गिरी होती ।
मं शर्मा (रज़ा)
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