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धुआँ धुआँ सी ज़मीं
धुआँ धुआँ आसमाँ
सुलग रहे ख्वाब सभी
हसरतें धुआँ धुआँ
रूह दम तोड़ रही
जिस्म हो रहा धुआँ
इस धुएँ के पार भी है
एक मुकम्मल सा जहाँ
क्षितिज के पार चल कभी
बसा लें एक नई दुनिया।
मं शर्मा (रज़ा)
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