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ठिठुरती हुई सी धुंध
अलाव तलाशती है
गर्म आगोश में पिघलने
खिड़कियों से झांकती है
कोहरे की गहन चादरों में
जीवन दुबक रहा है
दिसम्बर के महीने में
जाड़ा सुलग रहा है ।
मं शर्मा( रज़ा)
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ठिठुरती हुई सी धुंध
अलाव तलाशती है
गर्म आगोश में पिघलने
खिड़कियों से झांकती है
कोहरे की गहन चादरों में
जीवन दुबक रहा है
दिसम्बर के महीने में
जाड़ा सुलग रहा है ।
मं शर्मा( रज़ा)
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