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यादों का गहन समंदर
सीने में हैं कितने बवंडर
मुरझा गई रिश्तों की फसलें
सूखी धरती हो गई बंजर
खुशियाँ ऊपर ऊपर की हैं
गम ही गम कितने अंदर
वक्त के हाथों कठपुतली सा
नाचे आदमी बनके बंदर।
मं शर्मा( रज़ा)
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