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खटती रही जीवन भर माँ
घर बाहर दोनों मोर्चों पर
लुटा चकी सब कुछ अपना
अपने श्रवण कुमारों पर
तन्हा पड़ी रहती अकेली
दो बोल सुनने को तरसती है
साथ रहते हैं सब लेकिन
साथ होने को तरसती है।
मं शर्मा (रज़ा)
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