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दिग्भ्रमित सा सूरज फिर
दिवस भर फिरता रहा
अप्रतिम मिलन की चाह में
पहर पहर पिघलता रहा
चाहत क्यूँ है ज्ञात नहीं पर
निरूद्देश्य कुछ भी नहीं
इसी आस को लिए मन में
जीवन भर भटकता रहा।
मं शर्मा (रज़ा)
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