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कुछ मुड़े से

अधलिखे से

फटे पुराने

पन्नों की किताब सी


बेतरतीब

जाने कब से

पड़ी हुई थी

खुली हुई दराज सी


उजाले की आस में

ढली हुई सांझ सी

अंधेरे में गर्क हुए

सुबह के इंतजार सी।


मं शर्मा (रज़ा)

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